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नृ॒षदे॒ वेड॑प्सु॒षदे॒ वेड् ब॑र्हि॒षदे॒ वेड् व॑न॒सदे॒ वेट् स्व॒र्विदे॒ वेट् ॥१२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नृ॒षदे॑। नृ॒सद॒ इति॑ नृ॒ऽसदे॑। वेट्। अ॒प्सु॒षदे॑। अ॒प्सु॒सद॒ इत्य॑प्सु॒ऽसदे॑। वेट्। ब॒र्हि॒षदे॑। ब॒र्हि॒सद इति॑ बर्हि॒ऽसदे॑। वेट्। व॒न॒सद॒ इति॑ वन॒ऽसदे॑। वेट्। स्व॒र्विद॒ इति॑ स्वः॒ऽविदे॑। वेट् ॥१२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:12


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभापते ! आप (नृषदे) नायकों में स्थिर पुरुष होने के लिये (वेट्) न्यायासन पर बैठने (अप्सुषदे) जलों के बीच नौकादि में स्थिर होनेवाले के लिये (वेट्) न्याय गद्दी पर बैठने (बर्हिषदे) प्रजा को बढ़ानेहारे व्यवहार में स्थिर होने के लिये (वेट्) अधिष्ठाता होने (वनसदे) वनों में रहनेवाले के लिये (वेट्) न्याय में प्रवेश करने और (स्वर्विदे) सुख को जाननेहारे के लिये (वेट्) उत्साह में प्रवेश करनेवाले हूजिये ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - जिस देश में न्यायाधीश, नौकाओं के चलाने, प्रजा को बढ़ाने, वन में रहने, सेनादि के नायक और सुख पहुँचानेहारे विद्वान् होते हैं, वहीं सब सुखों की वृद्धि होती है ॥१२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तदेवाह ॥

अन्वय:

(नृषदे) यो नायकेषु सीदति तस्मै (वेट्) यो न्यायासने विशति सः। अत्र विशधातोः अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते [अष्टा०३.२.७५] इति विच् प्रत्ययः (अप्सुषदे) यो जलेषु नौकादिषु सीदति तस्मै (वेट्) (बर्हिषदे) यः प्रजाया वर्धके व्यवहारे तिष्ठति तस्मै (वेट्) अधिष्ठाता (वनसदे) यो वनेषु सीदति तस्मै (वेट्) (स्वर्विदे) यः सुखं वेत्ति तस्मै (वेट्) ॥१२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभेश ! त्वं नृषदे वेड् भवाप्सुषदे वेड् भव। बर्हिषदे वेड् भव, वनसदे वेड् भव, स्वर्विदे च वेड् भव ॥१२ ॥
भावार्थभाषाः - यस्मिन् देशे न्यायाधीशनौयायिप्रजावर्द्धकारण्यस्थनायकसुखप्रापका विद्वांसो वर्त्तन्ते, तत्रैव सर्वाणि सुखानि वर्द्धन्ते ॥१२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या देशात न्यायाधीश, नाविक, प्रजेची उन्नती करणारे लोक, वनात राहणारे लोक, तसेच सेनेचे नायक, सुखी करणारे विद्वान असतात तेथेच सर्व प्रकारच्या सुखांची वाढ होते.